Friday, June 4, 2010

परोपकाराय पुण्याय पापस्य पर्पिदानाम!...........

एक समय की बात है देवरिषि नारद भगवन नारायण का गुणगान करते हुए प्रथ्वी लिक में विचरण कर रहे थे , अचानक उनकी नज़र वेदव्यास पर पड़ी जो पुस्तकों के बीच ध्यानस्थ होकर बैठे हुए थे। नारद जी ने उन्हें प्रणाम की या और पूछा की आप इतनी पुश्ताके पढ़ रहे हैं क्या अभी भी आपको अध्ययन की जरूरत है? वेदव्यास जी ने कहा, नहीं नारद जी ये तो अठारह पुराण है जिनकी मैंने रचना की है यह मेरा सौभाग्य है की आप यहाँ पधारेमेरी समझ से अगर आप इनका अध्ययन कर ले तो मेरा परिश्रम सार्थक हो जाये आप अच्छे वक्ता होने के साथ -२ गतिशील भी हैं अतः इनके प्रचार प्रसार में सहायता कर सकते हैं।
नारद जी बोले इतनी किताबें देखकर ही मुझे बेचैनी हों रही है मैं ज्यादा देर तक एक जगह बैठ नहीं सकता अतः सभी पुरानो को पढना मेरे लिए तो संभव नहीं है, हाँ एक उपाय हो सकता है की आप मुझे संपूर्ण पुरानो का सार बता दें तो मैं उसे तीनो लोको में प्रचलित कर दूंगा फिर जिसे क्विस्द्तार से जानना होगा वह पुराणोंन को पढ़ेगा
पहले तो वेदव्यास जी बहुत निराश हुए की मैंने इतना समय अवं श्रम लगाकर पुराणों की रचना कीं और नारद जी पढने को राजी नहीं हैं फिर उन्होंने सोचा की नारद जी से अच्छा कोई प्रचारक तो मिल नहीं सकता इसलिए पुराणों का सार ही इन्हे बता दिया जाये.
अतः व्यास जी बोले ------
अश्तादशा पुरानेशु व्यशाश्य वाच्नाद्वायाम
परोपकाराय पुण्याय पापस्य पर्पिदानाम!
अर्थात इन १८ पुराणों में दो ही बातें मुख्या हैं - दूसरो पर उपकार करना दया अवं प्रेम रखना ही पुण्य है धर्मं है और किसी को पीड़ा पहुचना दुखी करना सबसे बड़ा पाप है !

आज जब धर्मं के नाम पर लोग बहस आडम्बर विवाद अवं युध पर उतारू हो जातवे हैं उनके लिए धर्मं का मौलिक अर्थ और वेदा पुरनियो का सार समझने का इससे सरल तरीका नहीं हो सकता , लोगो को भी यह समझना चाहिए की धर्मं पुण्य संयम पवित्रता अवं संतोष से रहित जीवन सुखी नहीं हो सकता है . धन कमाना अच्छी बात है लेकिन धन का उपयोग सिर्फ निजी सुविधाओ अवं भोग के लिए करना शारीरिक अवं मानसिक विकार पैदा करता है, जीवन में सुख अवं संतोष संसाधनों के संग्रह में नहीं बल्कि बाँटने में प्राप्त होता है।
इसीलिए हमरे ऋषियों ने समझाया की ' तें त्यक्तेन भुंजीथा' अर्थात -जिसने त्याग दिया उसने भोग लिया। जैसे आपकी जेब में १० रूपया है तो उन्हें भोगने के लिए पहले त्यागना होगा नोट को बिना त्यागे आप भोग नहीं कर सकते हैं।इसलिए भोग में जब आप दूसरो को शामिल कर लेते हैं तो उसका सुख कई गुना बढ़ जाता है.

प्राचीन काल से ही यज्ञ भंडारे भोज का यही उद्देश्य था , अकेले में खाए गए स्वादिष्ट व्यंजनों से वह तृप्ति मिल ही नहीं सकती जो सादे सामूहिक भोज से प्राप्त होती है, आज जब महानगरो में भीड़ और शोर बहुत बढ़ रहा है कही एकांत क्ल्होजना मुश्किल है फिर भी मनुष्य अकेला होता जा रहा है। उसकी न कोई सुनने वाला है न उसकी तरफ कोई देखने वाला। धन संसाधन अवं सुख सुविधाओ का धेर्ण लगाने की जैसे होड़ मची है व्यक्ति की पहचान सिर्फ उसके पद अवं पैसे से होती है लोग उदासीन होते जा रहे हैं, अवसाद्ग्रश्ता होकर आत्महत्या कर रहे हैं ऐसे में जितनी जल्दी यह बात समझ ले तो अच्छा है की-हम भूखे को अपना भिओजन दे सकें, और प्यासे को पानी पिला सके पीड़ित व्यक्ति को अपना समय दे सकें तो हम इश्वेर को प्रशन्ना करने के लिए अलग से किसी यज्ञ या अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं पड़ेगी जैसा की वेदव्यास जी ने लिखा है-
अन्नादो जल्दश्च्युएब्व अतुराश्य चिकित्सकः।
त्रायन्ते स्वर्गमायान्ति विना यज्ञेन भारत ॥

5 comments:

  1. bahut hi achha likha he,, namshkar tripathi ji... me or mere husband apke ghar aaye the kuchh din pehle.... bht accha laga aapse milkar,,,,, apki sadgi ne mujhe to bhut prabhavit kiya.

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  2. namashkar tripathi ji....mera naam khushbu hai.....main delhi se hu maine apko pehli bar bar yo tv k prog ram me dekha tha fir aine apko mail b kiya tha apka rply b aaya tha,,,guru ji hum chahte hai ki aap ek bar delhi aaye taki hume b apse milne ka moka mil sake......guru ji aj tak main kisi pandit k pas nahi gai...maine apka prog, kahani kismat ki bhot dhiyan se dekha tha aur apko follow b kiya tha....pandit ji agr ap chahe to main apni date of birth apko mail karna chahti hu aur kuch sawal b puchhna chahti hu....agar apki ijajat ho to.....namastey guru ji,,,,
    khushbu

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  3. thanks for comments -khushboo!
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    thanks

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