Tuesday, July 27, 2021

भारतीय संस्कृति में आत्मनिर्भरता

कहते हैं कि वक्त का पहिया घूमकर फिर पुराने पड़ाव पर पहुंचता जरूर है। मौजूदा दौर पर यह बात एकदम मुफीद मालूम पड़ती है। फिलहाल पूरी दुनिया जिस कोरोना महामारी से जूझ रही है उसमें हमारे पुराने नुस्खे ही काम आ रहे हैं जिन्हें हम वक्त के साथ हाशिये पर डालते गए। जिस वायरस के आगे आधुनिक विज्ञान बेबस दिखाई पड़ रहा है उससे लोहा लेने में हमारी परंपराएं ही रक्षक साबित हो रही हैं। 

इन्हीं परंपराओं का प्रतिनिधि काढ़ा जहां हमें शारीरिक रूप से सशक्त बना रहा है तो वृहद परिवार वाली सामाजिक परंपरा हमें मानसिक संबल प्रदान कर अवसाद खत्म करने में मददगार बन रही है। स्पष्ट है कि अपनी परंपराओं से मुंह मोड़ना हमारे लिए कितना घातक साबित हुआ। आखिर हम ऐसी स्थिति में पहुंचे कैसे? इसे अवश्य समझना होगा। इसके लिए अतीत के कुछ पन्ने पलटने होंगे। जहां तक प्राचीन भारत का प्रश्न है तो उसमें सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य का तानाबाना आस्था, श्रम एवं सहभागिता से बना था। वास्तव में तब देश हर प्रकार से आत्मनिर्भर था। 

स्वास्थ्य के संबंध में भी।इसमें आयुर्वेद एक महत्वपूर्ण कड़ी हुआ करती थी। हमारी रसोई में ही औषधियां उपलब्ध थीं। उनसे छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज संभव था। आयुर्वेद का उद्देश्य स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और बीमार के इलाज की व्यवस्था करना है। हमारे पास एक आस्थावान चिकित्सा पद्धति थी जिससे हम अपना इम्यून सिस्टम यानी रोग प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत कर सकते थे। तब हमारी आस्था का केंद्र सिर्फ मंदिर या मंत्र नहीं थे। उसमें नदी, सूर्य, चंद्र, जीव, जंतु और मनुष्य से भी प्रार्थना करके हम रोग मुक्त होते थे, क्योंकि उस प्रार्थना में छिपी हुई आस्था हमारी इम्युनिटी को इतना अधिक बढ़ा देती थी कि हम बड़ी से बड़ी स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों का सामना कर पाते थे। 
Representational Picture 


 आज भी यह स्थापित तथ्य है कि रोगी का विश्वास ही उसे ठीक करता है। आस्था ही सबसे बड़ी रोग प्रतिरोधक शक्ति है। अगर आप देखें तो वैद्य का नजरिया बड़ा पॉजिटिव होता है। जब वह कहते हैं कि 'कुछ नहीं है तुम्हें, सब ठीक हो जाएगा।' तो सांत्वना के ये स्वर किसी टॉनिक से कम नहीं होते थे। उस दौर में वैद्य से दिलासे और औषधि के साथ ही मंदिर से प्रसाद और आशीर्वाद मिल जाता था। परिवार में सबकी शुभेच्छा प्राप्त होती थीं और देखते ही देखते बड़ी से बड़ी बीमारी से मुक्ति मिल जाती थी। इसके उलट यदि आप आधुनिक चिकित्सा की दृष्टि से देखें तो उसमें तमाम जांच कराने की सलाह दी जाती हैं। उससे न चाहते हुए भी तमाम आशंकाएं घर करने लगती हैं। रोगी को डरा देना, सशंकित कर देना, भयभीत कर देना नया चलन बन गया है। 

ऐसा माहौल बना दिया जाता है कि बीमारी से निजात पाने के बाद भी रोगी का दवाओं से नाता बना रहे। ऐसी परिस्थितियों के लिए हमारे नीति-नियंता ही जिम्मेदार हैं। देश के स्वतंत्र होने के बाद से ही उन्होंने भारतीय संस्कृति और पारंपरिक ज्ञान की उपेक्षा की। गांव में बैठा हुआ अनुभवी वैद्य, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं दे रहा था। जो आरोग्यकारक आहार-विहार का शिक्षक था। सबसे पहले उसे झोलाछाप घोषित किया गया। वह सदियों से वही काढ़ा पिलाकर गरीब और दूर-दराज के रोगियों का इलाज कर रहा है जिसे सरकार आज लोगों को पीने की सलाह दे रही है। कभी उसका दस्तावेजीकरण, शोध या प्रशिक्षित कराने की कोशिश नहीं की गई कि उसके इलाज से लोग क्यों ठीक हो रहे हैं? इसके बजाय एलोपैथिक गोलियों और इंजेक्शन का महिमामंडन किया गया। जबकि कई मामलों में उनके साइडइफेक्ट उस बीमारी से भी बड़े हैं जिसके लिए वे दवाइयां खाई जा रहीं है। इसका परिणाम यह हुआ है कि आयुर्वेद की बकायदा डिग्री लेने के बावजूद वैद्य एलोपैथी दवाएं लिखने का मोह नहीं छोड़ सका। भारत को मात्र एक बाजार मानने वाली फार्मा कंपनियां लगातार यह कहती रहीं कि देश का पारंपरिक ज्ञान बहुत पिछड़ा हुआ है और इस कारण भरोसेमंद नहीं है। बावजूद इसके वे खुद हल्दी, लहसुन, तुलसी और नीम जैसी हमारी परंपरागत औषधियों का पेटेंट कराती रहीं और अपने ही देश में उन्हें दुत्कारती रहीं।

 इस बीच एक बड़ा सवाल यही है कि इन वैश्विक मुनाफाखोरों के टीकों पर मानव का अस्तित्व कब तक टिकेगा? आपात स्थितियों में आधुनिक चिकित्सा पद्धति निःसंदेह रामबाण है। उसकी वैज्ञानिक खोजें, जांच, यंत्र और ऑपरेशन थियेटर आदि सभी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन हमारी परंपरा और इस आधुनिकता के बीच सामंजस्य बैठाने में सरकारों की भूमिका ढुलमुल रही। आयुष मंत्रालय के गठन में ही बिलंब हुआ। संगठित सूरमाओं का वर्चस्व बढ़ाने के लिए भारतीय चिकित्सा पद्धतियों की निरंतर अवहेलना की गई। योग्य पारंपरिक चिकित्सकों को समर्थन देकर उनका हौसला बढ़ाने के बजाय उलटे उन्हें हतोत्साहित ही किया गया। हालात बिगाड़ने में रही-सही कसर लगातार फलते-फूलते उपभोक्तावाद ने पूरी कर दी। #नाड़ीपरीक्षण #pulsediagnosis #हस्तरेखा परीक्षण #PalmVeda और स्वप्न विश्लेषण #dreamanalysis ऐसी विधाएँ है जिस दिन #दुनिया  समझ पायेगी उस दिन #moderndiagnosis की अवधारणा धरी रह जाएगी.    इसने संयुक्त परिवार की हमारी समृद्ध परंपरा पर प्रहार किया और मानव को महज एक उपभोक्ता के रूप में रूपांतरित कर दिया। 

अधिक से अधिक सुख की चाह ने भौतिक संसाधनों के प्रति एक अंतहीन लालसा पैदा कर दी। उन्हें जुटाने की भागदौड़ में हमने अपने तन और मन का संतुलन ही बिगाड़ दिया। परिणामस्वरूप शुगर, बीपी और हाइपरटेंशन जैसी जीवनशैली से जुड़ी तमाम बीमारियों ने अपना शिकंजा कस लिया। इसमें यहां तक कहा गया कि जो दवा शुरू होगी वह बंद नहीं होगी। इससे उपजे अवसाद से राहत दिलाने के लिए वह परिवार भी हमारे पास नहीं रहा जिससे हम आधुनिकता के फेर में पीछा छुड़ा चुके थे। ऐसे में कोरोना संकट से उपजे ठहराव ने हमें आज पुन: विचार करने का समय और अवसर दिया है। मौजूदा हालात का विश्लेषण यही संकेत करता है कि हमें अपनी प्राचीन संस्कृति और मूल्यों को पहचान कर प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर चलना होगा। यही समय की मांग है। इसी में सबकी भलाई है। तभी हम सही अर्थों में पुन: आत्मनिर्भर हो पाएंगे।

 लेखक-आयुर्वेद एवं हस्तरेखा विज्ञान के जानेमाने लेखक, वक्ता एवं परामर्शदाता हैं.